कल मेरे जन्मदिन के साथ बिहार के सोशल इंजीनियरिंग वाले मुख्यमंत्री और हमारे प्रिय चाचा नीतीश कुमार का भी जन्मदिन था। उनकी कई खासियत हैं। उनमें से एक यह है कि उन्हें पता है कि सिर्फ काम करने से उतना वोट नहीं मिलता, जितने में सत्ता बची रहे। फिर भी मीडिया के सामने उनका तकिया कलाम रहता है- 'काम किया है, काम कर रहे हैं, जनता ने आशीर्वाद दिया तो आगे भी काम करेंगे'। काम के साथ सत्ता की कुर्सी को बचाने का जो कौशल अब तक उन्होंने दिखाया है, शायद ही कभी किसी नेता ने यह कौशल अकेले दिखाया हो। आज नीतीश कुमार के दल में सेकंड लाइन का एक भी नेता दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। फिर भी नीतीश कुमार उम्मीदों की नौका पर सवार हैं। वे एक नये वोट बैंक को अपने लिए आकर्षित करने में मुस्तैद हैं।
पहला आधार वोट बैंक लव-कुश
वर्ष 1994 में कुर्मी चेतना रैली की लौ पर समता पार्टी की आधारशिला रखी गयी। यह आधार लव-कुश (इसमें धानुक भी शामिल थे) वोट बैंक के सहारे रखी गयी। कंधा जॉर्ज फर्नांडीज, शकुनी चौधरी, सतीश कुमार जैसे लोगों का था, लेकिन पार्टी का ट्रिगर नीतीश कुमार के हाथ था। सिपाही उपेंद्र कुशवाहा जैसे युवा बने। समता पार्टी ने नीतीश कुमार को केंद्र की सत्ता तक तो पहुंचाया, पर बिहार की सत्ता दूर ही दिख रही थी। फिर आनंद मोहन समेत अन्य कई बाहुबली नेताओं को भी जोड़ा गया, ताकि लालू जी की टोली से सीधा मुकाबला किया जा सके।
फिर नाराज यादव भी जुड़े
2003 तक आते-आते लालू यादव से नाराज यदुवंशी को भी नीतीश कुमार ने एकजुट किया। इनमें अधिकांश एलिट यदुवंशी शामिल रहे। शरद जी की पार्टी, समता पार्टी और एक अन्य दल को मर्ज कर जदयू का निर्माण हुआ। शरद जी बिहार में लालू जी से नाराज यदुवंशियों के अगुआ बने। वोट बैंक में विस्तार हुआ।
सवर्णों ने भी मान लिया नेता
पहले सवर्ण बिरादरी के नेता इस फिराक में थे कि वे खुद ही लालू जी को पटक देंगे, लेकिन वे दो बार असफल रहे। फिर बीजेपी की सहभागिता की वजह से सवर्णों ने भी नीतीश कुमार को नेता मान लिया। इसके बाद फरवरी, 2005 के पहले चुनाव में त्रिशंकु नतीजे आये। नीतीश कुमार ने तीसरा कोण बने लोजपा के पहलवानों को तोड़ कर जदयू में मिला दिया। उनमें से एक संजय सिंह भी हैं।
कुछ अतिपिछड़े भी जुड़े
चुनाव आयोग के सख्त अधिकारी केजे राव ने 2005 के दूसरे चुनाव में ऐसा माहौल बनाया कि कमजोर लोग (दलित और अतिपिछड़े) भी वोट देने घरों से निकले और बिना भय के वोट किया। इस तरह नवम्बर 2005 के चुनाव में वह कारनामा हो गया, जिसका नीतीश कुमार को वर्षों से इंतज़ार था। 1994 में कुर्मी चेतना रैली से शुरू हुई यात्रा को मंजिल मिल गयी थी। वे बिहार के मुख्यमंत्री बन गये।
काम के साथ सोशल इंजीनियरिंग
2005 से 2010 तक के कार्यकाल में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने अतुलनीय काम किया। लॉ एंड ऑर्डर मेन इशू था। उसमें सुधार के साथ 2006 में सोशल इंजीनियरिंग का ऐतिहासिक कदम उठाया गया। बिहार पंचायत राज अधिनियम के निर्माण के साथ पंचायत प्रतिनिधियों के सभी एकल पदों के लिए 50 प्रतिशत महिला आरक्षण लागू कर दिया गया। इसके साथ अतिपिछड़ों के लिए पंचायत चुनाव में 20 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। इन दो फैसलों ने न सिर्फ बिहार की पंचायतों का मिजाज बदल दिया, बल्कि नीतीश जी का नया वोट बैंक भी तैयार कर दिया।
दलित-महादलित व उनका आयोग
बिहार में दलितों की आबादी 16 प्रतिशत है। रामविलास पासवान जी की नजर हमेशा से इस वोट बैंक पर थी, लेकिन नीतीश कुमार ने 2007 में एक राजनीतिक दांव खेला। उन्होंने पासवान बिरादरी को छोड़ बाकी के रविदास, मुशहर, पासी, धोबी, भुइयां, रजवार, डोम जैसी 21 दलित जातियों को महादलित बना दिया। महादलितों के लिए एक महादलित आयोग भी बनाया। इस कदम का दलितों को जो लाभ हुआ सो हुआ, रामविलास जी का सपना टूट गया और वे पासवान वोटों के नेता बन कर रह गये।
काम का मिला उल्टा ईनाम
मुझे याद है कि 2005 तक ब्लॉक स्तरीय सरकारी हॉस्पिटल में लोग इलाज के लिए जाना छोड़ चुके थे। वहां भैंस घूमते पाये जाते थे। नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में भाजपा के चंद्रमोहन राय स्वास्थ्य मंत्री बने थे, कुछ ही साल में हॉस्पिटल की रंगत बदल गयी। लोगों ने सरकारी हॉस्पिटल जाना शुरू कर दिया था। चंद्रमोहन राय बहुत शानदार काम कर ही रहे थे कि 2008 में एकाएक चंद्रमोहन राय को स्वास्थ्य मंत्री पद से हटा दिया गया। यह सुशील मोदी के बिहार भाजपा में बढ़ते कद का दौर था। सुशील मोदी जी, नीतीश कुमार जी के अनाधिकृत हनुमान हैं। नीतीश जी को यह मंजूर नहीं था कि बिहार में हो रहे अच्छे काम का क्रेडिट किसी और को भी मिले।
अतिपिछड़ा वर्ग का बम्पर साथ
2010 नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन का स्वर्ण वर्ष था। बिहार विधानसभा चुनाव में उनके विरोधी भी उन्हें सराह रहे थे। अतिपिछड़े वोट पहली दफा एकजुट हो कर एनडीए के पक्ष में पड़े, जो जदयू के आधार वोटों के ऊपर मंजिल का काम कर रहे थे। जदयू की सीटें सौ के पार पहुंच गयीं और राजद को बमुश्किल 20 से कुछ ज्यादा सीटें आयी थीं। इसका नतीजा हुआ कि नीतीश कुमार गर्वोन्मत हो गये। उन्हें लगने लगा कि अब उनकी बात को कोई अनसुना नहीं कर सकता। 2013 तक आते-आते भाजपा और जदयू में दूरियां बढ़ी। नरेंद्र मोदी की पीएम उम्मीदवारी के खिलाफ बोलने के लिए इन्हें चाभी अरुण जेटली जी ने भरी थी। इस विरोध के चक्कर में एनडीए टूटा और 2014 लोकसभा चुनाव ने इन्हें सीधे आसमान से जमीन पर पटक दिया। जदयू के मात्र दो सांसद जीते - एक लव और दूसरा कुश। नीतीश कुमार ने नैतिकता का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी जी को सीएम बना दिया। फिर जो बाद में राजनीतिक ड्रामा हुआ वह आप जानते हैं।
2015 में जोड़ लिया विरोधी वोट बैंक
राजद 10 वर्षों से सत्ता से बाहर थी और उन्हें किसी भी कीमत पर सत्ता में वापसी करनी थी और नीतीश कुमार किसी भी सूरत में सत्ता हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। यही वजह रही कि 2015 में राजद जदयू साथ आये। फिर नीतीश कुमार के चेहरे को आगे करके चुनाव हुआ। भाजपा के काबिलपने से उसकी हार हुई। एक तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान दिया, दूसरा भाजपा ने बिहार में सीएम का चेहरा तय नहीं किया। मोदी जी सीएम नहीं बनेंगे यह बिहार का बच्चा-बच्चा जानता था। पिछड़ों के बैटल ग्राउंड पर आरक्षण के मुद्दे की हवा के साथ बिना सीएम चेहरे के भाजपा की हार तय थी। वही हुआ भी। राजद-जदयू के वोट ट्रांसफर भी हुए।
2016 में झगड़ा, 2017 में तलाक
राजद के ठीकेदार समर्थकों को वर्षों से सत्ता की मलाई का इंतज़ार था। दोनों दलों के ठीकेदार टेंडर के चक्कर में नीतीश जी के लिए स्थिति असहज कर रहे थे। दारू का टेंडर बांटना भी बड़ी चुनौती बन गयी थी। फिर नीतीश कुमार ने 2016 में फैसला लिया कि बिहार में दारूबंदी होगी, जबकि दारू को पंचायत स्तर तक पहुंचाने वाले नीतीश कुमार ही थे। फिर दोनों दलों के समर्थकों का दर्द बढ़ता गया। नीतीश कुमार की भाजपा शाखा के लोग फिर से इन्हें भाजपा के करीब लाने में जुट गये। भ्रष्टाचार बहाना बना और 2017 में राजद से तलाक हुआ और पलट कर भाजपा से फिर सगाई हो गयी।
2019 में साथ, 2020 में घात
नीतीश कुमार ने फिर पुराने वोट बैंक के साथ चुनाव लड़ा। 2019 लोकसभा चुनाव में 17 उम्मीदवारों में 16 जीते। असली खेला 2020 में हुआ। नरेंद्र मोदी के हनुमान बन कर चिराग पासवान ने नीतीश कुमार से 2005/2007 का अपने पिताजी का राजनीतिक बदला चुकाया। नीतीश कुमार 2020 में अपने राजनीतिक जीवन में सबसे कमजोर जरूर पड़े, पर पूरी तरह मात खाने से बच गये। फिर भी इस घात का दर्द असहनीय महसूस हुआ। नीतीश कुमार उसी दिन से प्रतिघात की तैयारी में जुटे थे। अंततः 2022 में यह संयोग आया, जब भाजपा बिहार की सत्ता से बाहर कर दी गयी। अब नीतीश कुमार 2024 में पुनः 2015 वाले वोट बैंक को रिझाने की कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि, अब तक गंगा जी के दोनों कछार से बहुत पानी बह चुका है। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि वे फिर एक बार 2024 में कामयाब होंगे। देखिये क्या होता है, वह तो 2024 में पता चल ही जायेगा।
बाकी त जे है से हइये है।
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